उच्च रक्त चाप
परिचयः- शरीर पोषण हेतु अनवरत रक्त परिवहन होता है जिसके माध्यम से शिरा एवं धमनियों में होता हुआ रक्त शरीर की प्रत्येक कोषा को पोषण प्रदान करता है इस परिवहन में ह्रदय की मुख्य भूमिका होती है ह्रदय मनुष्य की उदर गुहा में छाती के मध्य कुछ बायीं ओर को झुकी हुई बन्द मुट्ठी के आकार की संरचना होती है एवं अनवरत यावत जीवन सकुंचन प्रकंुचन करता रहता है जिससे रक्त का परिवहन एवं शोधन बिना रुके होता रहता है इस संकोच एवं प्रसार के समय शिरा एवं धममियों पर रक्त का एक दबाव पड़ता है जिसे रक्त चाप कहते हैं जोकि साधरणतः 80/120 होता है इससे अधिक होने पर इसे उच्च रक्त चाप एवं निम्न होने पर निम्न रक्त चाप कहते है इससे कम या अधिक होने से ह्रदय की कार्यशैली प्रभावित होती हैं जो प्राणघातक भी हो सकती हैं।
कारणः- अत्यधिक तला भुना खाना, अत्यधिक नमक का सेवन एवं धमनियों पर अतिरिक्त वसा का जमाव होने के फलस्वरुप पहिकाओं की दीवारें मोटी एवं रक्त बहने का स्थान संकरा हो जाता हैं जिसके कारण कारण ह्रदय को अधिक जोर लगाना पड़ता है और रकत चाप बढ़ जाता है।
लक्षणः- शिर में चक्कर आना, नींद न आना, सीने में भारीपन कान मे सायं-सायं की आवाज होना, किसी कार्य मे मन न लगना, भूख कम लगना, थकान का अनुभव होना आदि लक्षण होते हैं कभी-कभी कोई भी लक्षण उपस्थित नही होते किन्हीं और कारणों से रक्त चाप नापने पर बढ़ा हुआ मिलता है इसी से इसे आधुनिक युग का मौन हत्यारा भी कहते हैं। यह अधिकतर 40-50 वर्ष की उम्र के बाद होता है कभी-कभी 30-35 वर्ष में भी हो जाता है। अतः जिन व्यक्तियों का भार अधिक हो। आयु 30 वर्ष से ऊपर हो उन्हे कभी-कभी रक्तचाप नपवाते रहना चाहिए एवं चिकनाई तथा लवण बहुल पदार्थाें के सेवन से बचाना चाहिए।
चिकित्सा- आयुर्वेद में रक्त चाप नाम की किसी व्याधि का वर्णन उपलब्ध नही होता लक्षणों की एक रुपता के आधार पर इसका अन्तभ्र भाव ‘व्यान बल वृद्धि‘ नामक व्याधि के रुप में किया जाता है जिसकी चिकित्सा निम्नवत हैं
- सर्वगंधा धनवटी - 2 गोली0 प्रातः सायं नाश्ता के बाद - पुनर्नवाष्टक कवाय या मांस्यादि के साथ।
- अश्वगंधारिष्ट - 20 मिली की मात्रा में भोजन के बाद बराबर जल मिलाकर।
- त्रिफला चूर्ण - 6 ग्रा0 रात को सोने के पूर्व गुनगुने जल से इसके अतिरिक्त कामदुधा रस मोती युक्त ब्राम्ही वटी, रसराज रस, योगेन्द्र रस, सारस्ववारिष्ट आदि बहुमूल्य एवं आशुफलप्रद औषधिय रोगों का प्रयोग आवश्यकतानुसार किया जाता है।
पथ्यापथ्यः- प्रातः काल भ्रमण, तले पदार्थों का सेवन वर्जित है अत्यधिक चिन्ता, दिवाशयन, रात्रि जागरण मद्य सेवन पूर्णतः वर्जित है, वायुकारक आहार जैसे कटहल, घुइंया, चना, मटर आदि अपथ्य हैं। रात का भोजन सोने से 2 घंटा पूर्व करंे एवं दिन का भोजन करने के बाद 30 मिनट विश्राम करें, अधिक नमक युक्त आहार वर्जित है।
जय आयुर्वेद
वैद्य पारस नाथ शुक्ल
विभागाध्यक्ष विवेकानन्द
पाली क्लीनिक लखनऊ
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