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आर्शज्योतिष में आपका स्वागत है



वैध पारस नाथ शुक्ल 'शास्त्री'

(179)
बार-बार जो मिचली होय।
या को छर्दि कहै सब कोय।
बासी खाना अध सड़ा।
रुचिकर गंध न होय,
या केचुवा हो पेट में,
तबहु छर्दि कछु होय।।

(180)
गुर्च, पुदीना, प्याज रस सवै बराबर लेप
तामे लौंग इलायची रत्ती-रत्ती देय
दूनो शहद मिलाय के दुइ-दुइ चम्मच खाय
शुल, छर्दि औं अरुचि को जड़ से देइ भगाय।

(181)
गोल मिर्च औ सौंफ महीन, धनिया सूखी होय।
मिश्री संग चबाइए, कष्ट छर्दि को खोय।
(182)
गोच मिर्च, कालानमक, भूनी जीर मिलाय।
नीबू रस संग चाहिए, छर्दि दूरि होय जाय।
तृष्णा
(183)
बार-बार पानी पियें, खाना खावें थोर।
याकों सबही कहत हैं तृषा रोग अति घोर।।

(184)
बड़ी इलायची लाइकैं, तावा पर लो सेंक
ताके बीज चुसाइए, छिलका दीजै फेंक
छिलका दीजे फेंक, तृषा को मारि भगावै
भोजन मा रुचि बढ़ै, शीघ्र ही सवैं पचावैं
कहैं शुकुल समझाय, बहुत जब तृषा सतावैं
सारे दु:ख नसांय, इलायची भूनि कै खावैं

(185)
पीपल छाल जलाइए, कोयला जब होय जाय
वाको जल में डालि कैं, तुरतै लेव बुझाय
तुरतें लेव बुझाय, छानि पानी रखि लीगें
तृषा होय अति घोर तो थोरा-थोरा दीजै
कहैं शुकुल समझाय बहुत रोगी सुख पावैं
तीन दिना के बाद तृषा को भूल नसावैं।।

मूर्छा
(186)
बाढ़ै दोष शरीर मा, औ मन दूषित होय जाय
नही ज्ञान तन का रहैं, मुर्छा यही कहाय।।

(187)
जक छिकनी पंचाग्ड़ लैं, छाया मा सुखपाय।
सिलवटटा मा पीसि कैं, चूरन रखो बनाय।।
जा काहू मुर्छा पड़ै, तन का रहै न ज्ञान।
ताको तुरत सुधाइए, चूरन रंच प्रमान।।

(188)
सूखी लेउ कयफरा छाल,
पीसौं सिलवटटा पर डाल।
अति महीन चूरन हो जावै,
मुच्र्छा होय ताहि सुधवावै।।

(189)
नौसादर, चूना मिलवावैं
मूर्छित रोगी को सुधवावैं
आवै छींक कष्ट सब भागैं
रोगी भनहुं नीदं से जागै।।

पानाव्यय
(190)
बार-बार जो पियै शराब
उसका जिगर होय बरबाद
परें न नींद भूख न लागै
खुशी चैन जीवन का भागैं
नासैं खून, शोथ बहु होय
रोग मदाव्यय कह सब कोय।

(191)
दारु पियैं तला बहु खाय।
भरी जवानी मारि जाय।।

(192)
जब मदाव्यय रोग सतावैं
दारु का न हाथ लगावैं
तला, भुना भोजन न करैं
तौ फिर कहौं कवन विधि मरैं

(193)
हरे साग उबले नित खावै, मटठा पियै अघाइ
प्रात: नित्य भ्रमण करैं, तब मदाव्यय जाय

(194)
पथरचरा औ गोखरु, असगंधा के मूल।
परुण संग काढ़ा करो, नासै रोग समूल।।

(195)
कालमेघ, मुइ आवंरा, कुटकी और गिलोय
काढ़ा करके पाइए, पानाव्यय दुख खोय।

(196)
एकाएक मद के तजे, भरण तुल्य दु:ख होय।
या से क्रमश: छोडि़ये, ज्यादा दु:ख होय।।

दाह
(197)
बाढ़ै पित्त शरीर मा, अंग-अंग साजाय,
तातै बाढ़ै जलन अति, यही दाह कहलाय।

(198)
मिर्चा तेल तजो बहु तीखा, दाह दु:ख देवे न जी का
बासी भोजन और खटार्इ, सिरका, राब महा दुखदार्इ।

(199)
दारु गांजा अति पियै, बहुत तम्बाकू खाय।
भरे पेट भोजन करै, दाह ताहि होय जाय।।
लेखक वैध पारस नाथ शुक्ल 'शास्त्री' विभागाध्यक्ष
विवेकानन्द पालीकिलनिक लखनऊ
मो0 नं0- 9336148404