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आर्शज्योतिष में आपका स्वागत है



वैध पारस नाथ शुक्ल 'शास्त्री'

(200)
गुर्च नीम की लाय कै, कूटै भली प्रकार।
शहद डालि छानै पिए, नासै दाह विकार।

(201)
ताजी छाल नीम की लावै,
कूटै पागी माहि मिलावै।।
ताको लाय मथानी मथै,
निकलें भाग दाह पर मलै।

(202)
पथर चटा, भुर्इ आंवरा, गुड़हल और गुलाब,
पानी मा पीसै रगरि, ओरु मिलावे डाय।
किंचित मिश्री डारि कैं शर्बत लेय बनाय,
सांझ सवेरे जौं पिए, अपसि दाह मिटि जाय।।

(203)
गाय दूध, दिन के ढले गुनगुन करि पी जाय।
दाह नही दु:ख दैं सकै, निसि दिन अंवरा खाय।

(204)
सेवत समय हर्र, जो खावे
दाह तासु के निकट न आवे

(205)
मलयागिरि चन्दन घिसै, कछुक कपूर मिलाय
ताके लेपन करे पैं, दाह समूल नसाय।

(206)
चन्दन औ चांदनी चकोरी जैसी प्रिया संग
भंग की तरंग में उमंग उमंगी रहैं
कोमल कमल पत्र भी बिछे हो छाहं तरुवर की
तरणी के तीर पै समीर बहती रहैं।
लेपन सुगन्ध का किए हो सब अंग अंग
रंग रंग के विहगं विहसित सदा रहैं।
पावन, मन भावन सुराही में भरा हो पेय
गेय गीत माधुरी की धुन बजती रहै।।
दाह से दहकता हो जिसका सब अंग अंग,
रंग में अनंग के वह जाय कुछ दिन रहै।।

(207)
चंदन, चांदी, चांदनी, चर्पण को तम्बूल
दूध, दाय औ प्राक्षा, करें दाह निमर्ूल

(208)
चंवर, कूपजल, चारि दुआर
दाह काह करि सकै तुम्हार

(209)
दिन तरु तर निसि ओष मा सोवैं
प्रात नहाय, दाह तब रोवै।।

उन्माद
(210)
जौ मन मनमानी करै, रहै न कछु भी याद
दिन भर बड़ बड़ जो करै कहै इसे उन्माद

(211)
दिन नहि चैन राति न सोवै, खोवै तन को होश
उन्मादित ता जानिए, जिन्हे रोश न जोश

(212)
पागल बूटी, औ असगंधा, खुरासानि अजवानि
जटामांसी की जड़ै सवै बराबर आनि
सोलह गुना डाारि कै पागी काढ़ा करै बनाइ
चौथार्इ बाकी बचै, देवै शहद मिलाइ
चार-चार चम्मच पिए, सुबह शाम दो बार
नींद परै, बक बक मिटै, घोर उन्माद संघार

अपस्मार (मृगी)
(213)
तन कापैं, मुख बोलि न पावै, गिरै पछाड़ी खाय।
गो-गो शब्द गले से निकलै औ अचेत हो जाय।
हाथ पैर धरती पर पटकै, मुहं झाग बहाय।
कछुक देर के बाद मा बेहोशी मिटि जाय
कमजोरी बाढ़ै अधिक, तन दुर्बल होय जाय
इतने लक्षण जौ मिलैं, तौ मिरगी रोग कहाय।

(214)
कौडि़ल्ला, बच ब्राहम्मी, जटामांसी, कूट,
असगंधा औ मस्तगी सबै बराबर कूट।
मिश्री सबै समान लै, भो घ्रत लेउ मिलाय,
सांझ सवेरे समान लै, गो धृत लेउ मिलाय,
रहैं सदा परहेज से, तला भुना न खाय,
सोवै सदैव समय पर मिरगी जड़ से जाय।।

(215)
माल कांगली तैल में गंधक शुद्ध मिलाय,
दोनो सम मिश्री करौं, रक्खो योग बनाय,
शाम सबेरे दूध से, दुइ-दुइ रत्ती खाय।
वृद्धि बढ़ै, मिरगी नसै, गाढ़ी निद्रा आय,
नासि करै उन्माद का शास्त्र याद हबै जाय।।
खाय कुछ दिना जौ कोउ तौ श्रुतिधर बन जाय

(216)
भेड़ी को मक्खन, मंगवावै तामे मिला कपूर
सिर ऊपर मर्दन करै, निद्रा हो भरपूर
निद्रोहो भरपूर चित्त चंचलता जावै
मिरगी, औ उन्माद जाय, रोगी सुख पावै
कहैं शुकुल समझाय सत्य सन्तन की बानी
शिर: शूल निमर्ूल होय, मिटि जाय निसानी।।


लेखक वैध पारस नाथ शुक्ल 'शास्त्री' विभागाध्यक्ष
विवेकानन्द पालीकिलनिक लखनऊ
मो0 नं0- 9336148404